पैग़ाम ज़िंदगी ने दिया मौत का मुझे मरने के इंतिज़ार में जीना पड़ा मुझे इस इंक़लाब की भी कोई हद है दोस्तो ना-आश्ना समझते हैं अब आश्ना मुझे कश्ती पहुँच सकेगी ये ता साहिल-ए-मुराद धोका न दे ख़ुदा के लिए ना ख़ुदा मुझे वो तूल-ए-उम्र जिस में न हो लुत्फ़-ए-ज़िंदगी मिल जाए मिस्ल-ए-ख़िज़्र तो क्या फ़ाएदा मुझे दूँ तेरा साथ उम्र-ए-रवाँ किस तरीक़ से आँखें दिखा रहे हैं तिरे नक़्श पा मुझे तख़लीक़-ए-काएनात को सोचा किया मगर कुछ इब्तिदा मिली न 'सफ़ी' इंतिहा मुझे