पैग़ाम-ए-शबाब आ रहा है शाख़ों पे गुलाब आ रहा है जज़्बे का परिंदा क्यूँ न तड़पे राहों में सराब आ रहा है होश्यार रहे ख़िरद की महफ़िल इक ख़ाना-ख़राब आ रहा है सरशार हैं वक़्त के कटोरे जाम-ए-मय-ए-नाब आ रहा है इस तरह शफ़क़ को नींद आई एहसास को ख़्वाब आ रहा है इंसान है बे-हया कुछ ऐसा हैवाँ को हिजाब आ रहा है तारों की निगाह क्यूँ न चमके चेहरे पे नक़ाब आ रहा है कोरा है ये हाशिया ख़ुदी का हस्ती का वो बाब आ रहा है उँगली में उभर रही है सोज़िश हाथों में रुबाब आ रहा है पूछा जो सवाल आसमाँ से धरती से जवाब आ रहा है घुलता है दिमाग़ ऐ 'करामत' सर पर जो अज़ाब आ रहा है