पलट जाना कोई मुश्किल नहीं था मिरा ही वापसी का दिल नहीं था मता-ए-ज़ीस्त ला-हासिल नहीं था वले पाने के मैं क़ाबिल नहीं था वो छुरियाँ धार जिस पर हो रहीं थीं मिरा ही दिल था कोई सिल नहीं था खुला बाब-ए-जुनूँ जब मुझ पे यारो मिरा तब कोई मुस्तक़बिल नहीं था मरीज़-ए-इश्क़ होने तक सुना है अधूरी ज़ात था कामिल नहीं था मुझे ग़र्क़ाब था अज़-हद ज़रूरी वगर्ना ज़ीस्त के क़ाबिल नहीं था मैं प्यासा था मगर होंटों से महरूम समुंदर था मगर साहिल नहीं था न दो इल्ज़ाम भौंरे को 'अली' तुम वो हरगिज़ फूल का क़ातिल नहीं था