पलकों पे तैरते हुए महशर तमाम-शुद आँखें खुलीं तो ख़्वाब के मंज़र तमाम-शुद ज़िंदा है भूक आज भी इफ़रीत की तरह तीर-ओ-तफ़ंग-ओ-लश्कर-ओ-ख़ंजर तमाम-शुद लोगो तुम अपने ज़र्फ़ से बढ़ कर दिया करो इस बार ज़ख़्म भर गए नश्तर तमाम-शुद तहरीर कर रहा था कहानी जुनूँ की मैं लेकिन ख़याल-ओ-फ़िक्र का मेहवर तमाम-शुद ख़ुद अपना अक्स आइनों में ढूँडते हैं लोग शीशा-गरों के शहर में पैकर तमाम-शुद जब धूप ओढ़े बैठी हो ग़ुर्बत क़तार में समझो ख़ुदी का आख़िरी ज़ेवर तमाम-शुद 'ज़ाकिर' रची-बसी कोई साज़िश फ़ज़ा में थी उड़ने से पेशतर मेरा शहपर तमाम-शुद