पलकों तक आ के अश्क का सैलाब रह गया दरिया दरून-ए-हल्क़ा-ए-गिर्दाब रह गया ये कौन है कि जिस को उभारे हुए है मौज वो शख़्स कौन था जो तह-ए-आब रह गया नख़्ल-ए-अना में ज़ोर-ए-नुमू किस ग़ज़ब का था ये पेड़ तो ख़िज़ाँ में भी शादाब रह गया क्या शहर पर खुली ही नहीं आयत-ए-ख़ुलूस क्या एक मैं ही वाक़िफ़-ए-आदाब रह गया कुछ ज़िक्र-ए-यार जिस में था कुछ ज़िक्र-ए-वस्ल-ए-यार तदवीन-ए-ज़िंदगी में वही बाब रह गया जो शय यहाँ की थी वो यहीं छोड़ दी मगर आँखों के बीच एक तिरा ख़्वाब रह गया देखा जो फिर से जानिब-ए-दरिया रवाँ मुझे बल खा के अपने आप में गिर्दाब रह गया 'अंजुम' तिरी ज़मीन अभी कितनी दूर है कोसों-परे तो क़रिया-ए-महताब रह गया