पर्दा-ए-चश्म से लहू निकला क़तरा बादल से सुर्ख़-रू निकला सख़्त बातों से उस का दिल टूटा संग-दिल शोख़ तुंद-ख़ू निकला है बजा मार-ए-आस्तीं कहना रह के पहलू में दिल अदू निकला आँख का इश्क़ में क़ुसूर नहीं दिल सरासर मिरा अदू निकला एक गुल ही पे कुछ नहीं मौक़ूफ़ वो हज़ारों से ख़ूब-रू निकला मय के पीने में रात भर ज़ाहिद न तो हम निकले और न तू निकला आइना कल हुआ था ख़ाना-नशीं आज क्यों तेरे रू-ब-रू निकला जाए क्यूँकर कहीं दिल-ए-वहशी बस्ता-ए-ज़ुल्फ़ मू-ब-मू निकला शौक़-ए-अबरू में तेरे बद्र-ए-मुनीर माह-ए-नौ बन के क़िबला-रू निकला मय पिएँ बर्शकाल आई है सब्ज़ा दुनिया में चार सू निकला तुझ से शर्मा के शाम मेहर छुपा सुब्ह निकला तो रद्द-ए-रू निकला चश्म-ए-वहदत परस्त वा जो हुई मैं ने देखा तो मुझ में तू निकला मोहतसिब तू भी सूरत-ए-ज़ाहिद दुश्मन-ए-साग़र-ओ-सुबू निकला दोस्त समझे थे हम जिसे 'तालिब' दुश्मन-ए-जान-ओ-आबरू निकला