परेशानी कहाँ की और सुकूँ क्या यही है ज़िंदगी तो सर धुनूँ क्या कोई सुनता नहीं शीशों के घर में तुम्हारे शहर में पत्थर चुनूँ क्या जिन्हें गिनने में टूटी साँस डोरी उन्हीं साँसों का जुर्माना भरूँ क्या किसी ज़ालिम के आगे सर झुकाऊँ बुज़ुर्गों की रिवायत तोड़ दूँ क्या मिरे दस्त-ए-तलब को रोकती है बता ऐ मुफ़लिसी आख़िर करूँ क्या ख़ुदा से इस लिए माँगा नहीं कुछ वो सब कुछ जानता है मैं कहूँ क्या करूँ क्या पैरवी अहल-ए-हवस की तिरी जानिब क़दम गिन कर रखूँ क्या