परतव पड़ा जो आरिज़-ए-गुलगून-ए-यार का उठा तनूर-ए-लाला से तूफ़ाँ बहार का हम-चश्म लाला है जो दिल-ए-दाग़-दार का नर्गिस को हम सा आरिज़ा है इंतिज़ार का लिखता है वस्फ़ शो'ला-ए-रुख़्सार-ए-यार का जा-ए-वरक़ हो हाथ में पत्ता चिनार का बीमार-ए-इश्क़ हूँ लब-ओ-दंदान-ए-यार का नुस्ख़े में मेरे चाहिए शर्बत अनार का रिश्ते की तरह से दुर-ए-दंदाँ का तेरे ज़ार साकिन है कूचा-ए-गुहर-ए-आब-दार का आसार-ए-इश्क़-ए-ख़ाक से भी अपने हैं अयाँ बे-वज्ह रंग ज़र्द नहीं है ग़ुबार का हर ज़र्रा अपनी ख़ाक का है चश्म-ए-इन्तिज़ार यारब इधर भी हो गुज़र उस शहसवार का हम आसियों को बा'द-ए-फ़ना भी ये ख़ौफ़ है तख़्ता उलट न जाए ज़मीन-ए-मज़ार का कलियाँ तलक न निकली थीं जब से असीर हूँ देखा मज़ा न कुछ चमन-ए-रोज़गार का चश्मान-ए-यार करने लगीं हैं दिलों को सैद इन आहुओं को शौक़ हुआ है शिकार का वो दिल-जले हैं शोला-ए-जव्वाला बन गया उट्ठा जो गर्द-ए-बाद हमारे ग़ुबार का याद-ए-मिज़ा ने बाग़-ए-दिल-ए-दाग़-दार में खटका लगा दिया ख़लिश-ए-नोक-ए-ख़ार का कुश्ता हूँ एक तर्क के तीर-ए-निगाह का अंदाज़-ए-मुर्ग़ दिल में है ज़ख़्मी शिकार का रख़्त-ए-सफ़ेद सूरत-ए-मीना-ए-मय है सुर्ख़ क्या रंग फूट निकला है अंदाम-ए-यार का फूलों की जा प्याला हो लबरेज़ फूल से तीजा है मय-कशो 'क़लक़'-ए-बादा-ख़्वार का