परतव-ए-हुस्न एक है और आइना-ख़ाने बहुत इक हक़ीक़त ने बना डाले हैं अफ़्साने बहुत रुख़्सत ऐ चाक-ए-गरेबाँ दस्त-ए-वहशत अलविदा'अ बढ़ चुके हैं अब जुनूँ की हद से दीवाने बहुत खो न जाएँ कसरत-ए-असनाम में वहदत-परस्त बंदगी के ज़ेहन में होते हैं बुत-ख़ाने बहुत शम-ए-तुर्बत पर मिरी आते हुए जलते हैं पर शम-ए-महफ़िल पर तो आ जाते थे परवाने बहुत 'बिस्मिल' इस दिल्ली के इन सुनसान वीरानों में आह गूँजते हैं आज भी इबरत के अफ़्साने बहुत