परवाज़ में जो साथ न दे आसमान पर बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर अब क़ुर्ब-ओ-बा'द में न रहा कोई फ़ासला दुनिया सिमट के आ गई मेरे मकान पर मेरा हरीफ़ दरपय-ए-आज़ार है मिरे मुझ को हदफ़ बनाता है वहम-ओ-गुमान पर शह-ज़ोर से कभी नहीं करता मुक़ाबला चलता है उस का ज़ोर फ़क़त बे-ज़बान पर मीज़ान-ए-अद्ल को नहीं लाता ब-रू-ए-कार करता है इंहिसार वो फ़र्ज़ी बयान पर ये ख़ू-ए-बे-नियाज़ी है मुझ को बहुत अज़ीज़ आए कभी न हर्फ़ मिरी आन-बान पर जिस की नहीं है आज कहीं कोई यादगार करता है फ़ख़्र वो मिरे नाम-ओ-निशान पर देहली में एक शाएर-ए-गुमनाम का कलाम 'बर्क़ी' है अब मुहीत ज़मान-ओ-मकान पर