गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था मिरा और उस का राब्ता तो हाथ और दुआ का था गुलाब क़ीमत-ए-शगुफ़्त शाम तक चुका सके अदा वो धूप को हुआ जो क़र्ज़ भी सबा का था बिखर गया है फूल तो हमीं से पूछ-गछ हुई हिसाब बाग़बाँ से है किया-धरा हवा का था लहू-चशीदा हाथ उस ने चूम कर दिखा दिया जज़ा वहाँ मिली जहाँ कि मरहला सज़ा का था जो बारिशों से क़ब्ल अपना रिज़्क़ घर में भर चुका वो शहर-ए-मोर से न था प दूरबीं बला का था