पास से यूँ आँचल लहराते लोग गुज़रते रहते हैं मेरे बदन में क़ौस-ए-क़ुज़ह के रंग उतरते रहते हैं अपने अंदर छुपे हुए दुश्मन का है एहसास जिन्हें मेरी तरह वो लोग भी अपने आप से डरते रहते हैं हम ने देखना छोड़ दिए हैं इक मुद्दत से ऐसे ख़्वाब ताबीरों की चाहत में जो ख़्वाब कि मरते रहते हैं राह में चाहे धूप कड़ी हो या साए बाहें फैलाएँ जिन का काम गुज़रना है वो लोग गुज़रते रहते हैं लाख शनासा हो पर ख़ुश्बू किस को दिखाई देती है एक हमीं हैं देर तलक आहें जो भरते रहते हैं वास्ता पड़ता ही रहता है तेज़ हवाओं से अपना हम बे-घर लोगों के अक्सर जिस्म बिखरते रहते हैं सुब्ह-सवेरे घर से 'ख़ावर' निकले हो फिर ध्यान रहे काली-रात के लम्हे दिन का रूप भी धरते रहते हैं