पासबान-ए-शहर चुप है वक़्त कैसा आ गया तोड़ कर दीवार-ओ-दर बस्ती में सहरा आ गया दोपहर की धूप और सहरा कोई क्या साथ दे डर के जब ख़ुद मेरे अंदर मेरा साया आ गया आइने में बाल इक चमका मिरे सर का सफ़ेद उड़ के बाहर सहन में इक ज़र्द पत्ता आ गया इब्न-ए-आदम का लहु सब की बुझा देता है प्यास जब कभी प्यासा हुआ बस्ती में दरिया आ गया है वही शाइ'र मिरी नज़रों में 'काज़िम' कामयाब लफ़्ज़ की तलवार पर जिस को कि चलना आ गया