पाता हूँ इज़्तिराब रुख़-ए-पुर-हिजाब में शायद छुपा है दिल मिरा उन की नक़ाब में सू-ए-फ़लक वो देखें अगर पेच-ओ-ताब में बरपा हो हश्र गहन लगे आफ़्ताब में वो चाँदनी में रुख़ से हटा दें अगर नक़ाब लग जाएँ चार-चाँद रुख़-ए-माहताब में ऐ ना-ख़ुदा-ए-कश्ती-ए-दिल देख-भाल के तूफ़ाँ छुपे न हों कहीं क़ल्ब-ए-हबाब में सब्र-आज़मा निगाहों का सदक़ा इधर भी देख फिर कुछ कमी सी पाता हूँ अब इज़्तिराब में इक तुम ही आए दर्द की दुनिया बसा गए वर्ना रहा था क्या दिल-ए-ख़ाना-ख़राब में 'इक़बाल' इन की मस्त-निगाहों का फ़ैज़ है मेरा जहान-ए-शौक़ है डूबा शबाब में