पत्थर की भूरी ओट में लाला खिला था कल आज उस को नोच ले गईं वो बच्चियाँ जनाब आँखों में रौशनी की जगह था ख़ुदा का नाम पाँव तुड़ा के मर रहे जाते कहाँ जनाब हम बर्ग-ए-ज़र्द सब्ज़ ख़लाओं में छुप गए हम को हवा-ए-सर्द थी संग-ए-गिराँ जनाब बोसे के दाग़ से है मुनव्वर जबीं मगर जलती पड़ी है शम्अ' सी प्यासी ज़बाँ जनाब काली ज़मीं पे छनती दरीचों से रौशनी बाहर तो झाँकिए है अनोखा समाँ जनाब नीली चमकती धूप तो बिकती नहीं कहीं हम किस के हाथ बेच दें लफ़्ज़-ओ-बयाँ जनाब