पत्थरों से न कभी टूट के उल्फ़त करना जिस्म शीशे का नहीं फिर भी हिफ़ाज़त करना अब न छू लेना कभी फूल से रुख़्सारों को उँगलियाँ अपनी जलाने की न ज़हमत करना झुकने देना न किसी पेड़ की शाख़ों का ग़ुरूर ढलते सूरज से ज़रा सी तो मुरव्वत करना अब जो बिखरे हैं दर-ओ-बाम तो हैरत कैसी हम ने सीखा ही न था घर की हिफ़ाज़त करना लाख मौजें हों मुख़ालिफ़ कि हवा हो नाराज़ पार इस बार भी दरिया किसी सूरत करना