पाया मज़ा ये हम ने अपनी निगह लड़ी का जो देखना पड़ा है ग़ुस्सा घड़ी घड़ी का उक़्दा तो नाज़नीं के अबरू का हम ने खोला अब खोलना है उस की ख़ातिर की गुल-झड़ी का इस रश्क-ए-मह के आगे क्या क़द्र है परी की कब पहुँचे हुस्न उस को ऐसी गिरी-पड़ी का इस गुल-बदन ने हँस कर इक ले के शाख़-ए-नसरीं हम से कहा कि कीजे कुछ वस्फ़ इस छड़ी का जब हम 'नज़ीर' बोले ऐ जाँ ये वो छड़ी है दिल टूटता है जिस पर जूँ फूल पंखुड़ी का