पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी और ऐसे भटकने में अंजान सी लज़्ज़त थी इन कोहना फ़सीलों को पहरों ही तके जाना इन ख़ाली झरोकों में जैसे कोई सूरत थी हैरान सी नज़रों में इक शक्ल गुरेज़ाँ सी इक साया-ए-गुज़राँ से वो कैसी मोहब्बत थी हर जुम्बिश-ए-लब उस की दस्तक थी दर-ए-दिल पर हर वक़्फ़-ए-ख़मोशी में तक़रीर की लज़्ज़त थी हर दिन के गुज़रने में हर रात के ढलने में हर चश्म-ज़दन मंज़िल हर साँस मसाफ़त थी