पेशानी-ए-मोहब्बत झुक जाए जिस ज़मीं पर का'बे का ज़िक्र क्या है बस हो ख़ुदा वहीं पर था वहशी-ए-अदा का नक़्श-ए-क़दम यहीं पर पेशानी-ए-मलक फिर झुकती न क्यों ज़मीं पर इक उम्र मरते जीते गुज़री है तेरे चलते जब मिट चला तबस्सुम बल आ चुका जबीं पर अफ़्लाक पर ज़मीं ही भारी रही हमेशा बाला-ए-अर्श साजिद मस्जूद था ज़मीं पर हों लाख हश्र तो भी कम हो न उस की लज़्ज़त दोनों जहान सदक़े ज़ालिम तिरी नहीं पर रहता है यूँ बराबर बीम-ओ-रजा का पल्ला प्यारी हँसी लबों पर क़ातिल शिकन जबीं पर महशर से क्यों मैं पूछूँ दिल से न पूछ देखूँ सज्दे का ये निशाँ है या दाग़ है जबीं पर हों लाख हश्र तो भी घटती नहीं कहीं पर लज़्ज़त तिरी नहीं की सदक़े तिरी नहीं पर इस गुल के आगे दिल ने जन्नत को दाग़ पाया उफ़ ज़ख़्म की बहारें दीवाने की जबीं पर गुज़री है उम्र 'बेख़ुद' रोते लहू के आँसू फ़र्द-ए-अमल का धोका हो क्यों न आस्तीं पर