पी रहा है ज़िंदगी की धूप कितने प्यार से दूर जो बैठा हुआ है साया-ए-दीवार से गोशा-ए-दिल की ख़मोशी घर में भी मिलती नहीं घर के हंगामे भी कम होते नहीं बाज़ार से सोचते क्या हो मिरे घर में दिया कोई नहीं रौशनी तो आ रही है रौज़न-ए-दीवार से ज़िंदगी के हर क़दम में वक़्त की रफ़्तार है ज़िंदगी को नापना क्या वक़्त क्या रफ़्तार से मंज़िल-ए-शहर-ए-तमन्ना शायद अब नज़दीक है क्यूँ नज़र आने लगे हैं रास्ते दुश्वार से किस क़दर ख़ुद्दार थे दो पाँव के छाले न पूछ कोई सरगोशी न की ज़ंजीर की झंकार से दुख में जब 'शबनम' उसे देखा तो अंदाज़ा हुआ फूल की पत्ती भी कम होती नहीं तलवार से