पीने दो ज़ाहिदो पीने की घड़ी है 'उम्र 'इबादत के लिए ढेर पड़ी है साक़िया क्यों ख़ुम उठाने की पड़ी है न कमी मय की है न हम को चढ़ी है तौबा के बा'द है हाल अपना ये साक़ी जाम छलका तो छलक आँख पड़ी है कम न कर साज़ की लय तू अभी मुतरिब सुब्ह होने में अभी देर बड़ी है नाचते हैं सब इशारे पे उन्हीं के पास उन के कोई जादू की छड़ी है देखते क्या 'सदा' वो मुश्किलें तेरी लग़्ज़िशों पे तिरी आँख उन की गड़ी है