पोशीदा अजब ज़ीस्त का इक राज़ है मुझ में बे-पर हूँ मगर जुरअत-ए-परवाज़ है मुझ में दुनिया मैं तिरे साथ अभी चल न सकूँगा कुछ बाक़ी अभी ज़र्फ़ की आवाज़ है मुझ में सफ़्हात पे बिखरे हैं मिरे सैंकड़ों सूरज इंसाँ के हर इक बाब का आग़ाज़ है मुझ में मजरूह तो कर सकता नहीं तेरे यक़ीं को ऐ दोस्त मगर फ़ितरत-ए-हमराज़ है मुझ में कोई मुझे बद-कार कहे उस की ख़ता क्या ये मेरा ही बख़्शा हुआ एज़ाज़ है मुझ में जुज़ तेरे मिरा सर न झुका आगे किसी के ये नाज़ है गर जुर्म तो ये नाज़ है मुझ में