पूछो न ये फ़िराक़ में क्या तेरा हाल है मरना कमाल-ए-सहल है जीना मुहाल है ये हुस्न हूर का न परी का जमाल है ख़ूबान-ए-दहर में तो अदीम-उल-मिसाल है ऐ जज़्ब-ए-इश्क़ सिर्फ़ ये तेरा कमाल है उन का मुझे ख़याल उन्हें मेरा ख़याल है बीमार-ए-दर्द-ओ-ग़म की हक़ीक़त न पूछिए कल और हाल उस का था आज और हाल है इक चौदहवीं के चाँद पर ही मुनहसिर नहीं यूँही हर एक शय को उरूज-ओ-ज़वाल है वाक़िफ़ हैं मेहर-ओ-मह की हक़ीक़त से ख़ूब हम इस में तिरा जलाल है इस में जमाल है मिर्रीख़ काँपता है तुम्हारे जलाल से तुम से मिलाए आँख ये किस की मजाल है कर दूँगा सर्द नार-ए-जहन्नम को हश्र में काफ़ी उसे मिरा अरक़-ए-इंफ़िआ'ल है उस सर्व-क़द के क़द से है जिस आदमी को इश्क़ सरसब्ज़ है वो बाग़ जहाँ में निहाल है ऐ शैख़ सलसबील हो या हो दो-आतिशा पीना कोई हराम नहीं है हलाल है 'साबिर' तिरा कलाम सुनें क्यूँ न अहल-ए-फ़न बंदिश अजब है और अजब बोल-चाल है