फूलों में वो ख़ुशबू वो सबाहत नहीं आई अब तक तिरे आने की शहादत नहीं आई मौसम था नुमाइश का मगर आँख न खोली जानाँ तिरे ज़ख़्मों को सियासत नहीं आई जो रूह से आज़ार की मानिंद लिपट जाए हम पर वो घड़ी ऐ शब-ए-वहशत नहीं आई ऐ दश्त-ए-अनल-हक़ तिरे क़ुर्बान अभी तक वो मंज़िल इज़हार-ए-सदाक़त नहीं आई हम लोग कि हैं माओं से बिछड़े हुए बच्चे हिस्से में किसी के भी मोहब्बत नहीं आई हम ने तो बहुत हर्फ़ तिरी मदह में सोचे अफ़्सोस कि सुनवाई की नौबत नहीं आई लरज़े भी नहीं शहर के हस्सास दर-ओ-बाम दिल राख हुए फिर भी क़यामत नहीं आई 'साजिद' वो सहर जिस के लिए रात भी रोई आई तो सही हस्ब-ए-ज़रूरत नहीं आई