पुराने ज़ख़्म को दिल से मिटाया भी नहीं जाता तिरी चाहत को औरों से छुपाया भी नहीं जाता तमीज़-ए-ख़ार-ओ-गुल से मैं हुआ वाक़िफ़ नहीं अब तक कहाँ रौशन-ज़मीरी है दिखाया भी नहीं जाता लगी इक आग है हर सू अज़िय्यत और नफ़रत की सुलगती आग को मुझ से बुझाया भी नहीं जाता कहाँ करता मुसलमाँ है किसी की अब निगहबानी नफ़स के हाथ लुटने से बचाया भी नहीं जाता नहीं मक़्सूद है 'मोहसिन' जहाँ में दिल लगाना यूँ जहाँ में इस हक़ीक़त को बताया भी नहीं जाता