पुरानी शाम नए आँगनों को रोती है कहीं चराग़ कहीं रत-जगों को रोती है कहीं ये हाल कि है फ़ासला जवाज़-ए-सफ़र कहीं ये हाल थकन फ़ासलों को रोती है ये शाख़-ए-दिल थी हरे मौसमों की दिल-दादा सो दश्त-ए-हिज्र में ताज़ा रुतों को रोती है वो आँख जिस ने कभी हैरतें अता की थीं वो आँख आज मिरी वहशतों को रोती है ये कैसा तर्क-ए-सुकूनत का ए'तिबार उठा सफ़र में रूह-ए-सफ़र हिजरतों को रोती है गुज़िश्ता उम्र से मंसूब इक शनासाई पस-ए-हजूज़ खड़ी फ़ुर्सतों को रोती है मिरा ख़मीर ये किस ख़ाल है उठा है 'रज़ी' कि मेरी ख़ाक अजब मस्कनों को रोती है