पुरखों से जो मिली है वो दौलत भी ले न जाए ज़ालिम हवा-ए-शहर है इज़्ज़त भी ले न जाए वहशत तो संग-ओ-ख़िश्त की तरतीब ले गई अब फ़िक्र ये है दश्त की वुसअत भी ले न जाए पीछे पड़ा है सब के जो परछाइयों का पाप हम से अदावतों की वो आदत भी ले न जाए आँगन उजड़ गया है तो ग़म इस का ता-ब-कै मोहतात रह कि अब के वो ये छत भी ले न जाए बर्बादियाँ समेटने का उस को शौक़ है लेकिन वो उन के नाम पे बरकत भी ले न जाए आदिल है उस के अद्ल पर हम को यक़ीन है लेकिन वो ज़ुल्म सहने की हिम्मत भी ले न जाए उन सोहबतों का ज़िक्र तो ज़िक्र-ए-फ़ुज़ूल है डर है कि लुत्फ़-ए-शुक्र-ओ-शिकायत भी ले न जाए ख़ुद से भी बढ़ के उस पे भरोसा न कीजिए वो आइना है देखिए सूरत भी ले न जाए