पुर-लुत्फ़ सुकूँ-बख़्श हवाएँ भी बहुत थीं गुलशन में तअ'स्सुब की वबाएँ भी बहुत थीं ख़ुद मैं ने ही रक्खा न ख़याल अपना कभी भी ग़ैरों की कुछ अपनों की जफ़ाएँ भी बहुत थीं सूरत पे उजाले थे अगर शम्स-ओ-क़मर के ज़ुल्फ़ों की सियाही में घटाएँ भी बहुत थीं थी अहद-ए-जवानी में मोहब्बत ही मोहब्बत ना-कर्दा गुनाहों की सज़ाएँ भी बहुत थीं मबहूत थे मसहूर थे सब देख के उस को शफ़्फ़ाफ़ सरापा था अदाएँ भी बहुत थीं हर वक़्त मिरे साथ थे असबाब-ए-तबाही क़िस्मत थी ख़राब अपनी ख़ताएँ भी बहुत थीं इक रोज़ क़ज़ा ले गई बीमार को 'आज़म' थे जब कि मसीहा भी दवाएँ भी बहुत थीं