प्यास हर ज़र्रा-ए-सहरा की बुझाई गई है तब कहीं जा के मिरी आबला-पाई गई है क़ैद में रक्खी गई है कहीं तितली कोई कोई ख़ुशबू कहीं बाज़ार में लाई गई है क्या भला अपनी समाअत में घुले कोई मिठास वक़्त के होंटों से कब तल्ख़-नवाई गई है किस की तनवीर से जल उठ्ठे बसीरत के चराग़ किस की तस्वीर ये आँखों से लगाई गई है हो गई जा के शफ़क़-रंगी-ए-आफ़ाक़ में ज़म कफ़-ए-दोशीज़ा-ए-दिल से जो हिनाई गई है उठ ऐ बर्बाद-ए-तमन्ना की नई ख़्वाब-कनीज़ हरम-ए-चश्म में फिर रक़्स को लाई गई है वक़्त ऐसा भी तो आया है जुनूँ पर 'सारिम' नोक-ए-मिज़्गान से तलवार उठाई गई है