क़दमों के निशाँ सब माँद पड़े जो संग-ए-मील था टूट गया कुछ मंज़िल मुझ से छूट गई कुछ मंज़िल से मैं छूट गया चेहरे की मा'सूमी थी या जल्वों का रो'ब था हैबत थी बैठे थे रूप-सिंगार को वो और आइना गिर कर टूट गया अब आप अकेले शहर में हैं क्या मुझ से पागल लोग नहीं इक मेरी क़िस्मत फूटी थी क्या सब का मुक़द्दर फूट गया तारीकी फैलने वाली है सूरज को सँभाल के रखिएगा दीवार पे साए बिखरे हैं जो धूप का रंग था छूट गया इस हुस्न-ओ-शबाब पे जितना भी हो नाज़-ओ-ग़ुरूर है कम लेकिन सब झूटे थे कब सच बोले कुछ मैं भी कह कर झूट गया रहबर तो न था रहज़न भी न था क्या उस के तआ'रुफ़ में बोलूँ या बे-सर-ओ-सामाँ मैं ही था या जो कुछ था वो लूट गया इक गंदुमी रंग का चेहरा था और फूल शगूफ़ा लगता था पलकों को 'अदीम' वो ठेस लगी गुलदस्ता ख़्वाब का टूट गया