क़लम की नोक और तिरछी नज़र आग़ाज़ होती है मिरी तन्हा मिज़ाजी जब मिरी हमराज़ होती है चले आए हैं हम भी देखने उस रंग-ए-महफ़िल को सुकूत-ए-शब जहाँ यारो शब-ए-शीराज़ होती है तुम्हारी ज़ात से मंसूब हो कर बस यही जाना हमेशा आगही दिल पर असर-अंदाज़ होती है लहू देना गरेबाँ चाक कर के शे'र कह लेना तरन्नुम में ग़ज़ल लेकिन जिगर का साज़ होती है उजाले इस लिए दामन के सब तक़्सीम करता हूँ जो शम्अ' रौशनी बाँटे वही मुम्ताज़ होती है तिरे चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल हम से बात करते हैं शिकन माथे की उस पर दिल-शिकन आवाज़ होती है ज़मीन-ओ-आसमाँ गर हो नज़र में बिल-यक़ीं जिस के मुकम्मल दो-जहाँ में उस की हर परवाज़ होती है गुलिस्ताँ ख़ास मौक़े पर महकता है मगर 'शाहिद' तिरी ख़ुशबू हवाओं के लिए ए'ज़ाज़ होती हे