जब अपने ए'तिक़ाद के मेहवर से हट गया मैं रेज़ा रेज़ा हो के हरीफ़ों में बट गया दुश्मन के तन पे गाड़ दिया मैं ने अपना सर मैदान-ए-कार-ज़ार का पाँसा पलट गया थोड़ी सी और ज़ख़्म को गहराई मिल गई थोड़ा सा और दर्द का एहसास घट गया दरपेश अब नहीं तिरा ग़म कैसे मान लूँ कैसा था वो पहाड़ जो रस्ते से हट गया अपने क़रीब पा के मोअ'त्तर सी आहटें मैं बार-हा सनकती हवा से लिपट गया जो भी मिला सफ़र में किसी पेड़ के तले आसेब बन के मुझ से वो साया चिमट गया लुटते हुए अवाम के घर-बार देख कर ऐ शहरयार तेरा कलेजा न फट गया रक्खेगा ख़ाक रब्त वो इस काएनात से जो ज़र्रा अपनी ज़ात के अंदर सिमट गया चोरों का एहतिसाब न अब तक हुआ 'क़तील' जो हाथ बे-क़ुसूर था वो हाथ कट गया