क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर को चश्म-ए-तर तक ले गए अब के आए ऐसे बादल मेरा घर तक ले गए कम हों कुछ बेचैनियाँ शायद दर-ओ-दीवार की हम तिरे कूचे के इक पत्थर को घर तक ले गए तब ये जाना सर बरहना कर दिया हालात ने बे-ख़याली में जो हम हाथों को सर तक ले गए छाँव में जिस की मिला करते रहे हम मुद्दतों मसअला दिल का उसी बूढ़े शजर तक ले गए कह दिया सब कुछ बशक्ल-ए-शेर उन की बज़्म में नाला-ए-दिल-सोज़ को हम यूँ असर तक ले गए तुम को जाना था तो जाते ये ग़ज़ब कैसा किया ग़म छुपा कर मुस्कुराने का हुनर तक ले गए तब कहीं जा कर हमें 'मारूफ़' आया है क़रार जब जबीन-ए-शौक़ को हम संग-ए-दर तक ले गए