रात बहुत अँधियारी थी जीवन नय्या भारी थी जाने लोग दुखी थे क्यों बाज़ी हम ने हारी थी रोते हुए क्यों लोग उठे हँस कर रात गुज़ारी थी कल ही का ये क़िस्सा है शाम सहर पर भारी थी इस की सज धज न्यारी थी हरी भरी सी क्यारी थी अपने सब आराम से थे बिगड़ी बात हमारी थी रग रग में उस की 'नुसरत' धोका था मक्कारी थी