रात भर तन्हा रहा दिन भर अकेला मैं ही था शहर की आबादियों में अपने जैसा मैं ही था मैं ही दरिया मैं ही तूफ़ाँ मैं ही था हर मौज भी मैं ही ख़ुद को पी गया सदियों से प्यासा मैं ही था किस लिए कतरा के जाता है मुसाफ़िर दम तो ले आज सूखा पेड़ हूँ कल तेरा साया मैं ही था कितने जज़्बों की निराली ख़ुशबुएँ थीं मेरे पास कोई उन का चाहने वाला नहीं था मैं ही था दूर ही से चाहने वाले मिले हर मोड़ पर फ़ासले सारे मिटाने को तड़पना मैं ही था मेरी आहट सुनने वाला दिल न था दुनिया के पास रास्ते में 'अश्क' बे-मक़्सद जो भटका मैं ही था