रात भी हम ने रो-रो काटी दिन भी सो के ख़राब किया खुलने वाली आँखों को भी अमदन महव-ए-ख़्वाब किया एक ही रोटी को धो धो कर पीते रहे हम शाम-ओ-सहर सारी उम्र में शायद हम ने एक ही कार-ए-सवाब किया रिज़्क़ तो है मक़्सूम हमारा उस को दुआ की हाजत क्यूँ ढाँक के चेहरा दस्त-ए-दुआ से हम ने ख़ुद से ख़िताब किया उस की नज़र से तीर जो निकला ठीक निशाने पर बैठा घायल आहू बन कर हम ने बन बन को शादाब किया अश्क बहा देने के हुनर में सानी उस का कोई नहीं इक दिन हँसते हँसते उस ने सब को तह-ए-सैलाब किया बचपन में देखा था हम ने माँ का चेहरा याद नहीं बू-अली-सीना बन कर हम ने उस के रुख़ को किताब किया