रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस मैं भी ता-सुब्ह रखी बुलबुल-ए-गुलज़ार से बहस नौ-बहाराँ में वो हो जावे है क्यूँ सुर्ख़ मगर दाग़-ए-दिल को है मिरे लाला-ए-कुहसार से बहस तालिब-इल्म-ए-मोहब्बत जो मैं था तिफ़्ली में थी नित आँखों की मिरे हुस्न-ए-रुख़-ए-यार से बहस सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच न तो तकरार है काफ़िर से न दीं-दार से बहस सौ ज़बाँ गो हुईं मुँह में तिरे ऐ ग़ुंचा-ए-गुल तुझ को लाज़िम नहीं करना मिरी मिन्क़ार से बहस शेवा हर-चंद कि अपना नहीं तालिब-इल्मी तो भी मौजूद हैं हम करने को दो-चार से बहस यूँ हुई हार गले का मिरे वो नर्गिस-ए-मस्त जूँ करे राह में कोई किसी होशियार से बहस हों वो दीवाना कि इक शब भी जो मैं घर में रहूँ रात को सुब्ह करूँ कर दर-ओ-दीवार से बहस अक़ल-ए-कुल ने नहीं इल्ज़ाम दिया उस को हुसूद दूर हो, कर न अबस 'मुसहफ़ी'-ए-ज़ार से बहस