रात के बाद वो सुब्ह कहाँ है दिन के बाद वो शाम कहाँ जो आशुफ़्ता-सरी है मुक़द्दर उस में क़ैद-ए-मक़ाम कहाँ भीगी रात है सूनी घड़ियाँ अब वो जलवा-ए-आम तमाम बंधन तोड़ के जाऊँ लेकिन ऐ दिल ऐ नाकाम कहाँ अब वो हसरत-ए-रुसवा बन कर जुज़्व-ए-हयात है बरसों से जिस से वहशत करते थे तुम अब वो ख़याल-ए-ख़ाम कहाँ ज़ीस्त की रह में अब हम बे-हिस तन्हा सर-ब-गिरेबाँ हैं कुछ आलाम का साथ हुआ था वो भी नाफ़रजाम कहाँ करनी करते राहें तकते हम ने उम्र गँवाई है ख़ूबी-ए-क़िस्मत ढूँड के हारी हम ऐसे नाकाम कहाँ अपने हाल को जान के हम ने फ़क़्र का दामन थामा है जिन दामों ये दुनिया मिलती उतने हमारे दाम कहाँ