रात के साँस की महकार से सरशार हवा जागते शहर सुला देती है बेदार हवा हो के सैराब ख़म-ए-शब से सर-ए-दामन-ए-गुल सूरत-ए-अब्र बरस जाती है मय-ख़्वार हवा जाने किस तरह ख़लाओं में धनक बनती है चाँद की रंग भरी झील के उस पार हवा तालिब-ए-मौज-ए-सहर जाती है लहरों पे सवार साहिल-ए-शब से उठाती है जो पतवार हवा कितनी यादें हैं कि झोंकों की तरह तैरती हैं छोड़ आती है सफ़र में जिन्हें मंजधार हवा सर खुले ख़ाक उड़ाती हुई आँगन आँगन रात के दर्द का कर जाती है इज़हार हवा चाँद के रस में बुझे लम्हों की तन्हाई में ज़हर-ए-हिज्राँ में है डूबी हुई तलवार हवा कितने लम्हे थे कि अश्कों की तरह बरसे थे रात गुज़री थी जो गाती हुई मल्हार हवा ज़र्द शाख़ों की पतावर में उठाती हुई हश्र 'कीट्स' की नज़्म का जैसे कोई किरदार हवा वो तिरी झूमती ज़ुल्फ़ों का घना जंगल है भूल जाती है जहाँ शोख़ी-ए-रफ़्तार हवा आसमाँ पर सफ़र-ए-मौज-ए-सहर से पहले रोज़ उठा देती है इक रंग की दीवार हवा