रात की सारी हक़ीक़त दिन में उर्यां हो गई ख़्वाब की ताबीर पढ़ कर आँख हैराँ हो गई हर नफ़्स सैल-ए-हवादिस हर क़दम अमवाज-ए-ग़म ज़िंदगी इस दौर में तूफ़ाँ ही तूफ़ाँ हो गई आरज़ू-दर-आरज़ू बढ़ती गईं महरूमियाँ हर तमन्ना रफ़्ता रफ़्ता दुश्मन-ए-जाँ हो गई कितनी बे-मअ'नी रिफ़ाक़त अब्र के टुकड़ों में थी देख कर मेरे घरौंदे बर्क़-ओ-बाराँ हो गई वो तिरे बचपन की चिंगारी भी थी मौसम-शनास जब जवाँ होने के दिन आए फ़रोज़ाँ हो गई सोज़-ए-दिल दर्द-ए-जिगर ख़ून-ए-तमन्ना अश्क-ए-ग़म एक लग़्ज़िश कितने अफ़्सानों का उनवाँ हो गई