रात को ख़्वाब हो गई दिन को ख़याल हो गई अपने लिए तो ज़िंदगी एक सवाल हो गई डाल के ख़ाक चाक पर चल दिया ऐसे कूज़ा-गर जैसे नुमूद-ए-ख़ुश्क-ओ-तर रू-ब-ज़वाल हो गई फूल ने फूल को छुआ जश्न-ए-विसाल तो हुआ यानी कोई निबाह की रस्म बहाल हो गई तुझ को कहाँ से खोजता जिस्म ज़मीं पे बोझ था आख़िर इसी तकान से रूह निढाल हो गई कौन था ऐसा हम-सफ़र कौन बिछड़ गया 'ज़फ़र' मौज-ए-नशात-ए-रहगुज़र वक़्फ़-ए-मलाल हो गई