रात-भर जो सामने आँखों के वो मह-पारा था ग़ैरत-ए-महताब अपना दामन-ए-नज़्ज़ारा था बन गए गिर्दाब सैल-ए-अश्क जाए गर्द-बाद अब्र-ए-तर की तरह मैं जिस दश्त में आवारा था तू ने आँखें फेर लीं याँ काम आख़िर हो गया ताइर-ए-जाँ पा-ए-बंद-ए-रिश्ता-ए-नज़्ज़ारा था शब तिरे परतव से लबरेज़-ए-लताफ़त था चमन हर गुल-ए-शब्बू से जारी नूर का फ़व्वारा था मुझ को दम लेने की भी फ़ुर्सत न दुनिया में मिली रोज़-ए-मौलिद शादियाना कूच का नक़्क़ारा था ख़ुर्रमी होती है बेदर्दों को सैर-ए-बाग़ में हम ने जिस गुल पर नज़र की इक गुल-ए-सद-पारा था ख़्वाब में भी यार तक मुमकिन न था दख़्ल-ए-रक़ीब जिन दिनों अपना ख़याल अख़बार का हरकारा था शब नज़र की मैं ने फ़ुर्क़त में जो सू-ए-आसमाँ अज़दहा थी कहकशाँ अक़रब हर इक सय्यारा था ऐ अजल दी तू ने बार-ए-जिस्म से आ कर नजात कब से मेरी पीठ पर ये ख़ाक का पुश्तारा था ख़ौफ़ सब जाता रहा दिल से अज़ाब-ए-हिज्र का नक़्द-ए-जाँ देना गुनाह-ए-इश्क़ का कफ़्फ़ारा था कहते हैं मारा गया वो जुर्म-ए-तेग़-ए-नाज़ से कूचा-ए-क़ातिल में 'नासिख़' नाम जो बेचारा गया