रातों की सुनसान सड़क पर चलते हैं यादों के लश्कर देख न यूँ पीछे मुड़ मुड़ कर वर्ना हो जाएगा पत्थर मिलती है पैरों को ताक़त खा कर देख कभी तू ठोकर घर ही बे-घरी ये कब तक कोई नई दीवार नया दर क़त्ल का इतना शोर हुआ है देख रहा हूँ ख़ुद को छू कर वस्ल चलो मंज़ूर है यूँ भी उन का पत्थर और मेरा सर