रातों को जागने की सज़ा बन के रह गया मैं तेरी आरज़ू में दुआ बन के रह गया इक बाज़गश्त मेरा मुक़द्दर बनी रही मैं गुम्बदों के बीच सदा बन के रह गया हर गाम तिश्नगी का सफ़र था मिरे लिए घर से चला तो दश्त-ए-बला बन के रह गया मिलने की आरज़ू ने जलाया तमाम रात मैं तेरी रहगुज़र पे दिया बन के रह गया गुम-सुम खड़ी थी रात अंधेरा समेट कर कोई ख़याल था कि दिया बन के रह गया निकला था आसमान की वुसअ'त को नापने मैं अपनी चाहतों में ख़ला बन के रह गया 'ख़ालिद' खड़ा था मैं भी सज़ा और जज़ा के बीच धड़का जो दिल तो ख़ौफ़-ए-ख़ुदा बन के रह गया