राब्ता है मुझे शीशे से न पैमाने से फिर वो क्या बात है मंसूब हूँ मय-ख़ाने से अहल-ए-मय-ख़ाना सलीक़े से पिएँ आब-ए-हयात वर्ना फिर मौत है छलकेगी जो पैमाने से एक आलम से जुदा मस्लिहतें हैं इस की कौन हर बात पे उलझे तिरे दीवाने से ख़िरद आशोब है हर नुक्ता-ए-इरफ़ान-ए-हयात और बढ़ता है जुनूँ अक़्ल के बढ़ जाने से