रफ़्ता रफ़्ता जज़्ब-ए-उल्फ़त में कमाल आ ही गया हिज्र के पर्दे से पैग़ाम-ए-विसाल आ ही गया इज़्तिराब-ए-दिल बशक्ल-ए-राज़ आख़िर ता-ब-के तिश्ना-ए-दीदार के लब पर सवाल आ ही गया मेरे दस्त-ए-आरज़ू में लाख नाकामी पे भी वो नहीं तो उन का दामान-ए-ख़याल आ ही गया ये तो अब तक फूँक देता हस्ती-ए-कौनैन को वो तो कहिए इश्क़ में कुछ ए'तिदाल आ ही गया फूट ही निकली रग-ए-सौदा से तनवीर-ए-जुनूँ ज़र्रे ज़र्रे में बयाबाँ के जमाल आ ही गया नक़्श धुँदले हो चुके हैं सानेहात-ए-ज़ीस्त के जाने क्या देखा कि फिर उन का ख़याल आ ही गया सर पे सौदा-ए-मोहब्बत पा-ब-ज़ंजीर-ए-जुनूँ- तेरे दर पर 'वहशी'-ए-आशुफ़्ता-हाल आ ही गया