रह गया दीदा-ए-पुर-आब का सामाँ हो कर वो जो रहता था मिरे साथ मिरी जाँ हो कर जाने किस शोख़ के आँचल ने शरारत की है चाँद फिरता है सितारों में परेशाँ हो कर आते-जाते हुए दस्तक का तकल्लुफ़ कैसा अपने घर में भी कोई आता है मेहमाँ हो कर अब तो मुझ को भी नहीं मिलती मिरी कोई ख़बर कितना गुमनाम हुआ हूँ मैं नुमायाँ हो कर वो मिरे सहन में उतरे हैं उजाले कहिए शाम तकती है दर-ओ-बाम को हैराँ हो कर मैं ने उस शख़्स से सीखा है तकल्लुम का हुनर वो जो महफ़िल में भी रहता था गुरेज़ाँ हो कर उजड़ी उजड़ी सी हवा ख़ाक-ब-सर आती है शाम उतरी है कहीं शाम-ए-ग़रीबाँ हो कर एक हंगामा सा यादों का है दिल में 'अज़हर' कितना आबाद हुआ शहर ये वीराँ हो कर