रह के ख़ामोश भी एलान बहुत करता है आइना चेहरों का नुक़सान बहुत करता है आओ सहरा में ये दीवाने से चल कर पूछें फूल क्यूँ चाक गरेबान बहुत करता है रौशनी लिख नहीं सकता किसी क़िस्मत में चराग़ रात आती है तो एहसान बहुत करता है आओ अब अक़्ल की मीज़ान पे तोलें उस को वो वफ़ादारी का एलान बहुत करता है ये नया दौर जो एहसान तो करता ही नहीं और शर्मिंदा-ए-एहसान बहुत करता है सूनी रह जाएँ जो शाख़ें तो गिला भी न करे वो परिंदों को परेशान बहुत करता है आज 'सौलत' की ये पहचान बहुत काफ़ी है दिल-ओ-जाँ आप पे क़ुर्बान बहुत करता है