राह मंज़िल की मुसाफ़िर को सुझाते हैं चराग़ रौशनी कर के अँधेरों को मिटाते हैं चराग़ जिन की आँखें नहीं उन के लिए बे-फ़ैज़ मगर आँख वालों के बहुत काम बनाते हैं चराग़ दिन निकलता है तो हो जाते हैं ये बे-वक़'अत ज़ुल्मत-ए-शब में मगर रंग जमाते हैं चराग़ याद करता हूँ मैं उस रश्क-ए-क़मर को ऐसे जिस तरह लोग अंधेरे में जलाते हैं चराग़ डर के तारीकी से जो तर्क-ए-सफ़र करता है हौसला ऐसे मुसाफ़िर का बढ़ाते हैं चराग़ चैन से बैठना लोगों को कहाँ आता है ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चराग़ दर्स देते हैं मोहब्बत का 'ज़माँ' को अक्सर लोग नादान हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़