रहते हैं इंतिशार में साए इधर उधर इम्कान-ए-इश्क़ सब ही गँवाए इधर उधर मैं दश्त-ए-बे-गियाह में भेजी गई मगर करती फिरूँ मैं दश्त में हाए इधर उधर अहल-ए-ज़बान गुम रहे तस्बीह में मिरी रक्खूँ मैं जान-ए-शौक़ छुपाए इधर उधर सहरा को प्यास सौंप के दरिया सिमट गया अब्र-ए-सियाह दूर ही छाए इधर उधर वो इश्क़-ए-ना-मुराद मिरी जान ले गया फाहे तो ज़ख़्म-ए-जाँ पे सजाए इधर उधर राहों में तीरगी ने उजाले को डस लिया ये रात काले जिस्म को खाए इधर उधर आवारगी का ज़ौक़ 'हुमा' दिल को भा गया ये और बात जाँ नहीं जाए इधर उधर